Friday, December 31, 2010

आया नया साल है...

आया नया साल है, सब कुछ बेमिसाल है
कई जगह हड़ताल है. आया नया साल है

हो रहा बलात्कार है, भ्रष्टाचारी मालमाल है।
मर रहा आम इन्सान है, आया नया साल है

संसद में मचा बवाल है, जेपीसी का सवाल है
विपक्ष बड़ा वाचाल है, आया नया साल है

महंगाई ने किया लाल है, प्याज का भी ख्याल है,
सबसे मंहगी बेचारी दाल है, आया नया साल है

बढ़ रहा शिकार है, नेता बना पिशाच है
खा रहा इंसान है, आया नया साल है

राजनीति की बिसात है, जी का बना जंजाल है
लुट रहा समाज है, आया नया साल है

बढ़ रहा पाप है, सो रहा है भगवान है
थक रहा इन्सान है, आया नया साल है

Saturday, December 25, 2010

उधम सिंह, एक भुला दिया गया नाम...

उधम सिंह, भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का एक भुला दिया गया नाम। वो इन्सान, जिसने जलियावालां नरसंहार के उत्तरदायी व्यक्ति को मौत के घाट उतारकर सैकड़ों हिन्दुस्तानियों की मौत का बदला लिया। आजादी के संघर्ष में लगे हुए अनेकों नामों में आज उधम सिंह का नाम अपना अस्तित्व ढूंढता नजर आ रहा है।
उधमसिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के सुनाव गांव में हुआ। जन्म के दो साल बाद ही मां का देहांत हो गया और 1907 में पिता भी चल बसे। अनाथ होने के बावजूद उधमसिंह ने हिम्मत नहीं हारी और जीवन के पथ पर मजबूती से आगे बढ़ते रहे।
फिर साल आया 1919 का, जब जलियांवाला बाग में अपनी आखों से उन्होंने लोगों को मरते हुए देखा। जनरल डायर ने सैकड़ों निहत्थे लोगों पर बेदर्दी से गोलियां चलवी दीं और यह सब देखकर 20 साल के उधमसिंह का खून खौल उठा। उन्होंने इस नरसंहार का बदला लेने की ठान ली। दोषी सात संमदर पार जा चुके थे, जिन्हें ढूंढकर मौत के घाट उतारना सरल कार्य नहीं था। परंतु उधम सिंह देश की आजादी के लिए लिए मरने-मारने का मन बना चुके थे।
अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अमेरिका, नैरोबी, ब्राजील और अफ्रीका की यात्रा की। सन् 1934 में उधम सिंह लंदन में जाकर रहने लगे। उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर भी खरीद ली, ताकि मौका मिलने पर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर सकें। बस अब उन्हें सही वक्त का इंतजार था। उन्हें मौका मिला 1940 में, जब लंदन के रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक में जलियावालां हत्याकांड का दोषी माइकल ओ डायर भी मौजूद था। उधम सिंह उस बैठक में समय से पहले ही पहुंच गए। अपनी पिस्टल को उन्होंने एक किताब में छुपा लिया था। इस किताब के पन्ने पिस्टल के आकार में पहले ही काट लिए गए थे। बैठक के बाद उधम सिंह ने मौका देखकर माइकल ओ डायर पर गोलियां चला दी। डायर की मौत उसी समय हो गई।
ऐसा माना जाता है कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियावालां हत्याकांड का बदला लिया, जबकि कई इतिहासकारों का मानना है कि उन्होंने तत्कलीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ डायर को मारा था।
उधम सिंह की प्रतिज्ञा पूरी हो गई थी। गिरफ्तार होने पर उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें फांसी की सजा दी गई। 31 जुलाई 1940 को उधमसिंह को पेटंलविले जेल में फांसी दे दी गई।
यह भारत का दुर्भाग्य है कि आज की युवा पीढ़ी आजादी के महानायकों को भूल चुकी है। यदि अंशमात्र भी उधम सिंह के पदचिन्हों पर चला जाए तो देश में फैली हुई कई समस्याएं समाप्त की जा सकती हैं। उधमसिंह के जन्मदिवस पर उन्हें शत-शत नमन...

Tuesday, November 16, 2010

क्या आपका घर वाकई सुरक्षित है?

देश की राजधानी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में एक 5-मंजिला इमारत गिरने से तकरीबन 64 लोग मौत की नींद सो गए और सैकड़ों घायल हो गए। जर्जर नीव के कारण इमारत ढह गई और निर्दोष लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी। कसूरवार बिल्डिर फरार हो चुका है। यही नहीं, इमारत के ऊपर दो मंजिलों का निर्माणकार्य जारी था। यह अत्यंत निंदनीय है कि पैसे के लालच में कुछ बिल्डर जान की कीमत ही भूल जाते हैं। इंसान ही इंसान की जान की कीमत भूल गया है। इमारत की बेसमेंट में पानी भरा रहता था जिसपर किसी ने ध्यान ही  नहीं दिया। इमारत में रहने वालों ने शायद सोचा ही नहीं होगा कि आने वाली शाम मौत  का पैगाम लेकर आएगी। घटना के बाद कई बचाव कार्य किए गए। घायलों को अस्पताल ले जाया गया। लेकिन क्या मात्र बचाव कार्य करने से ही इन भयानक समस्याओं पर अंकुश लग जाएगा? निश्चत रूप से नहीं। यह सब जानते हुए भी आखिर क्यों इमारत गिरने के हादसे होते हैं। जवाब हम सबके पास है, लेकिन 'राम भरोसे' चलने की आदत ही ऐसी विपदाओं को जन्म देती है। जब तक घर में रहने वाला ही सचेत नहीं होगा, तबतक समस्या से छुटकारा पाना मुश्किल है। परंतु केवल सचेत होने भर से काम चलने नहीं वाला। दोषी बिल्डरों के खिलाफ सख्त कानून बनने चाहिए, जिससे इंसानी जिंदगी से खेलने की हिम्मत फिर किसी के दिमाग में न आए। बिल्डरों का दुस्साहस केवल कानून की कमजोरी से ही जागता है। कानून के प्रति सम्मान की भावना लोप हो चुकी है। अब केवल डर ही काम करता है और जब वो डर ही न हो तो अपराधी ही जन्म लेंगे।
जिस इलाके में इमारत गिरी वहां यह नियम था कि 3- मंजिला इमारत ही बन सकती है, लेकिन बावजूद इसके इमारत बनाने  की आज्ञा डीडीए( दिल्ली नगर  निगम) द्वारा दी गई। सरकार को इसका जवाब देना चाहिए।
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने मृतकों के परिवारों के लिए 2 लाख रुपये और घायलों के लिए 50 हजार रुपये के मुआवजे की घोषणा की लेकिन सवाल यह उठता है कि अवैध तरीके से बनाई इमारत को सही करने की जिम्मेदारी क्या शीला सरकार की नहीं थी? इस हादसे के असली दोषी सरकार के नेता हैं जो अवैध निर्माण को मंजूरी देते हैं। जिन परिवारों के लोग हादसे में मारे गए वो पीछे सिर्फ मातम छोड़ गए लेकिन सबक भी छोड़  गए कि आंख बंद कर लेने से जिंदगी सुरक्षित नहीं हो जाती। इमारत में रह रहे लोगों द्वारा यदि समय पर आवाज उठाई गई होती तो यह हादसा नहीं होता। जरूरत है जनता के जागृत होने की। हादसे के बाद कितना परिवर्तन देखने को मिलेगा यह तो वक्त ही बताएगा।

Wednesday, November 10, 2010

ओबामा का खेल

दुनिया के सबसे ताकतवर देश के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा का भारत दौरा भारतीयों की नजर से अच्छा रहा। कई मुद्दों पर दोनो शक्तियों के बीच अहम करार हुए। ओबामा ने स्वयं को महात्मा गांधी से प्रभावित बताया। उस वक्त शायद ओबामा महोदय यह भूल गए कि अमेरिका ही पाकिस्तान को हथियार उपलब्ध करवाता आया है। जिस अमेरिका ने जापान पर एटम बम गिरा दिया था। जिस अमेरिका ने अफगानिस्तान में कत्लेआम करवाया था। ओबामा के हाथ में कमान आने के बाद गांधी से प्रेरित ओबामा क्या करते हैं, यह देखने वाली बात होगी।

Sunday, October 24, 2010

सीने में कैद दरिया

है जो सीने में कैद दरिया, कैसे तुझे दिखाऊं मैं
लगी है जो दिल में आग, कैसे उसे बुझाऊं मैं
एक जमाना तेरा इंतजार किया, तेरी याद में खुद को निलाम किया
जालिम तू फिर भी ना आई, जालिम तू फिर भी ना आई
दिल की ये प्यास कैसे बुझाऊं मैं
तेरी याद में तड़पता रहा, हर मोड़ पे तुझे ढूंढता रहा
आखिरकार तू सामने आई,पर हाय री किस्मत तू मुझे पहचान ना पाई
कसूर तेरा है या मेरा, जानता नहीं हूं मैं
इसी सवाल ने नीदों को हराम किया, दिल का चैन छीन लिया
अपने दिल को कैसे समझांऊ मैं....

Tuesday, October 19, 2010

दर्द

इतना मत तड़पा कि आंख में आंसू आए, इतना कहर मत बरपा कि जान निकल जाए
तू इतनी पत्थर दिल क्यूं है, तुझसे मिला ये दर्द इतना हसीन क्यूं है

तेरी आंखों में एक वादा देखा था, मेरे दिल ने एक सपना देखा था
सोचा नहीं था ये घड़ी भी आएगी, जो जीते जी बेदम कर जाएगी

क्या कसूर है मेरा अब ये भी समझा दे, तेरे दिल में छुपी मेरी औकात भी समझा दे
तुझे फरेब कहुं या दर्द की देवी कहूं, मुझ जिंदा लाश को भी बता दे

Thursday, October 14, 2010

सवाल

क्यूं दिल की बात लबों पर आकर ठहर जाती है
कयूं दिल की आवाज़ मुझे हिलाती है

हर पल उसकी याद साथ होती है
फिर क्यूं भरी महफिल में अकेला कर जाती है

मन में उसी की नाम गूंजता है
दिल उसी के लिए धड़कता है

क्या उसे भी पता चलता है
जानता हूं वो सब समझती है फिर क्यूं वो अनजान दिखाई देती है

यही बात खटकती है
क्यूं वो दूर-दूर रहती है

क्यूं उसकी मुस्कुराहट मेरे करीब नहीं होती है
क्या उसके भी दिल की धड़कन मेरी आवाज से तेज होती है
अगर ये सब सच है तो क्यूं वो अपने कदमों को रोकती है..

Tuesday, October 12, 2010

तेरे नाम...

मत भेज कोई पैगाम, हम इंतजार में जी लेंगे
तेरे दिए ज़ख्म हंसकर सह लेंगे
जहां तेरी जुदाई सही है, वहां ये गम भी सह लेंगे
अब तो आदत सी हो गई है तेरी याद में तड़पने की
दिल में लगी है आग, बस तुझे एक बार देखने की
तेरी खूबसुरती का दिदार चाहता हूं, मैं उम्र भर तेरा प्यार चाहता हूं
तेरे सपनों में खोया हुआ हूं, तेरी याद में खोया हुआ हूं
फिर से उसी खूबसूरत नजर से देख मुझे, या आकर कत्ल कर मुझे
आज भी याद है, वो पहली घड़ी जब तुने अपनी नजरों से मेरे दिल को छुआ था
उस वक्त मेरे दिल में प्यार का तूफान उठ खड़ा हुआ था
हर तरफ तू ही नजर आती है,तेरी खूबसूरती एक प्यास जगाती है
बस अब ओर क्या बयान करूं, एक तू कह कर तो देख
अपनी जान तुझ पर वार दूं.....

Thursday, October 7, 2010

जज्बातों का तूफान

वो कहते हैं, जमाने की निगाहों से बचकर रहा करो, प्यार का इजहार खुलकर कर मत किया करो।
हम कहते हैं, जज्बातों के तूफान को रोक सकें, ऐसे मर्ज का इलाज भी बता दिया करो।

वो कहते हैं, निगाहें इल्जाम लगा देंगी, भरे बाजार नीलाम करा देंगी।
हम कहते हैं, निगाहें कोई शाही फरमान नहीं, जो क़िस्मत का फैसला सुना देंगी।

वो कहते हैं, अभी सही वक्त नहीं है महोब्बत का, दिल के जज्बातों को लगाम दिया करो।
हम कहते हैं, महोब्बत पर कैसे कसी जाती है, जरा हमें भी समझा दिया करो।

वो कहते हैं, मुलाकात नहीं हो सकती, कोई देख लेगा तो रुसवाई होगी।
हम कहते हैं, महोब्बत है वो मुक़द्दस आलम, जिससे ख़ुदा की इबादत होगी।

वो कहते हैं, तुम पर यक़ीन नहीं होता, दिल में महोब्बत का चिराग यूं रोशन नहीं होता।
हम कहते हैं, तुम पर मर मिटे हैं जानम, इससे बड़ा सुबूत कोई और नहीं होता।

Saturday, September 25, 2010

ये कैसा रिश्ता..

मैं हैरान हूं। टीवी  के  एक रिएलटी शो में दिखाया गया कि किस तरह से एक लड़का दिल्ली के करोल बाग में एक लड़की से मिलता है और दोनों प्यार में  पड़ जाते हैं।  बाद में धोखेबाजी भी होती है। वैसे इस रिश्ते को प्यार जैसे पवित्र शब्द से नहीं नवाजना चाहिए। पर क्या कर सकते हैं। हवा ही कुछ ऐसी चल पड़ी है। वैसे समझ नहीं आता कि 5 मिनट में ऐसा क्या नजर आ जाता है कि साथ जीने-मरने की कसमें खाकर मिलना-जुलना शुरू कर देते हैं।
   बात कर रहा हूं उन दिनों जब मैं शहर के सिटी चैनल में बतौर एंकर काम करता था। वहां ऑडिशन के लिए एक कन्या का आगमन हुआ। ऑडिशन मैने ही लिया था।  मोबाइल  नम्बर उसने ले ही लिया था।  फोन करने भी शुरू कर दिए थे। हद तो तब हो गई जब हर वक्त उसी के फोन आने लगे। "आकाश आज मैं  किसी काम से मार्केट आई हुई  हूं,  आपकी याद आई तो फोन कर लिया।"  बस दिनों-दिन उसने तो इतने फोन किए कि मैं सोच में पड़ गया। फिर भी मैंने ध्यान न देते हुए इसे मात्र उसका बचपना समझते हुए कोई प्रतिक्रिया नहीं की। धीरे-धीरे दिन बीत गए। नया साल आ गया। नए साल का जश्न मनाने के लिए उस रात मैं अपने दोस्त के घर पर था। हम सब दोस्तों ने मिलकर खूब मस्ती की, नाच-गाना किया। उसी रात उसका फोन आया। मेरा बात करने का मूड नहीं था इसलिए दोस्त से बात करवा दी। थोड़ी ही देर में क्या देखता हूं कि दोस्त महाशय काफी देर से बातों में ही लगे हुए हैं।
मैं समझ गया कि बात आगे बढ़ती ही जा रही है। कुछ दिनों में उनकी बातें फोन पर लगातार होने लगी। पता चला कि बात शादी की भी हो रही है। मैने विभा से इस बारे में पूछा तो तो उसने साफ इन्कार कर दिया। कहने लगी कि मेरा उसके साथ कोई चक्कर नहीं है। मुझ पर गलत इल्जाम मत लगाओ, मुझे गुस्सा आता है। फिर तो मित्र ने ही फोन पर उसे आई लव यू कहते हुए सुनाया। कुछ महीनों बाद जब उनकी पहली मुलाकात हुई तो वो मुलाकात आखिरी मुलाकात में बदल गई। इस तरह किस्सा खत्म हुआ।

Sunday, September 19, 2010

बारिश ने धो दिया

आज सुबह मूसलाधार बारिश हो रही थी। काफी देर तक चलती रही। ऑफिस के लिए निकलते वक्त सोच रहा था कि छाता लगाकर  भीगने से बच जाऊंगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। असली मुसीबत तो यह थी कि सड़को पर जमा हुए पानी  से कैसे बचूं?  सड़क तो पार करनी ही होती है न। वहां से उड़कर तो जा नहीं सकता। नतीजा यह कि जूते और जुराब सब गीले हो गए। इस वक्त भी गीले मोजे डाल रखे हैं। जूते कुर्सी के नीचे हैं। मजबूरी है। ऑफिस में ना उतार सकता हूं ना ही बदल सकता हूं। दिल्ली का ऐसा हाल है कि कोई भी, कहीं भी धुल सकता है।

Saturday, September 18, 2010

हम भी आ गए

आकाश कुमार की तरफ से आपको नमस्कार।