Friday, May 9, 2014

लघुकथा - आसान नहीं है

                                                 


                                            
    
                                                    ' अरे आसान नहीं है..तू क्या सोचता है...पराए शहर जाकर तू बड़ा आदमी बन जाएगा...अरे तेरी जेब कट जाएगी वहां...वहां जीना आसान नहीं है...चुपचाप पढ़ ले और रोटी खा ले "...पिता के मुंह से इतना सब सुनकर गगन सहम गया..उसने तो सोचा था कि वो पढ़ने-लिखने बड़े शहर जाएगा और अच्छी नौकरी करेगा..मगर पिता की ऐसी बातों ने उसका हौसला ही तोड़ दिया था... 

                     बड़े शहर जाकर पढ़ने की तमन्ना ने गगन की नींदे उड़ा दी थीं। कुछ बड़ा करने की कसक ने उसका चैन छीन लिया था। मगर पिता की हर रोज की हौसला तोड़ने की बातों ने उसको पागल कर दिया था। वो ये सोचने लगा था कि क्या लक्ष्य पाने के लिए मेहनत करना और बड़े सपने देखना गुनाह है। गगन का पूरा बचपन इन्ही डर भरी बातें सुनने में बीत गया। दोस्तों के साथ खुशमिजाजी से जीना वो नहीं जानता था। हर काम, यहां तक कि खुशी से हंसना-हंसाना वो सीख ही नहीं पाया। 

कई सालों तक पिता को हर काम में तनाव में आते देखकर उसको ये लगने लगा था कि तनाव ही जीवन का जरूरी हिस्सा है। वो सोचता था कि यदि कुछ भी करना है तो तनाव लेना और देना ही होगा।  कई सालों तक वो इसी सोच के साथ जीया। 

किसी तरह उसने अपने शहर में ही रहकर पढ़ाई पूरी की। आखिरकार उसे मौका मिला देश की राजधानी में ट्रेनिंग करने का। डरते -डरते उसने अपना कदम पराए शहर की जमीन पर रखा। पिता की सीख उसे याद थी कि बड़े शहर में सब ठग हैं। कोई भी अच्छा नहीं मिलेगा। 

ऑफिस में पहुंचकर उसकी मुलाकात कुछ सीनियर्स से हुई। मगर एक बात ने उसे हैरान किया। यहां सब सीनियर उसकी मदद करते थे। उसे काम सिखाते थे। बड़े शहर का पहला सफर उसके लिए आसान साबित हुआ था। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि उसे ऐसे सीनियर मिले। पिता की नसीहत गलत साबित हुई थी। वो कहते हैं ना कि भटके तो वो हैं जो घर से निकले नहीं।  

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